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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


मेरी आँखें अश्रुपूरित हो गईं। खुशी अपने उत्कर्ष पर पहुँच कर आँसू बन गई। पर अभी पूरा साल भी न गुज़रा था कि मुझे सईद के मिजाज में कुछ बड़ा परिवर्तन नज़र आने लगा, हमारे बीच कोई मनमुटाव, कोई बदमजगी न हुई थी। मगर अब वह सईद न था, जिसे एक लम्हे के लिए भी मेरी जुदाई मुश्किल लगती थी। वह अब रात-की-रात गायब रहता। उसकी आँखों में वह अनुराग न था, न अंदाज़ों में वह प्यास, न मिजाज में वह गर्मी।

कुछ दिन इस अनुरागहीनता ने मुझे खूब रुलाया। मुहब्बत के मज़े आ-आकर तड़पा देते। मैंने पढ़ा था कि मुहब्बत अनश्वर होती है। क्या वह बहता जल इतनी जल्दी खुश्क हो गया। आह नहीं, वह अब भी नियमित रूप में था, पर उसका बहाव अब किसी दूसरी ओर था। वह अब किसी दूसरे चमन को हरा-भरा करता था।

आखिर मैं भी सईद से आँखें चुराने लगी। बेदिली से नहीं, सिर्फ़ इसलिए कि अब मुझे उससे आँखें मिलाने की शक्ति न थी। उसे देखते ही मुहब्बत के हज़ारों करिश्मे नज़रों के सामने आ जाते और आँखें भर आतीं। मेरा दिल अब भी उसकी तरफ़ खिंचता था। कभी-कभी बेअख्तियार जी चाहता कि उसके पैरों पर गिरूँ और कहूँ- ''मेरे दिलदार, यह निर्दयता क्यों? यह बेहरमी क्यों? मुझसे क्या खता हुई?'' लेकिन इस स्वाभिमान का बुरा हो, वह दीवार बाधक बन जाती थी।

यहीं तक कि रफ्ता-रफ्ता मेरे दिल में भी मुहब्बत की जगह हसरत ने ले ली। निराशा में आशा ने दिल को तसकीन दी। मेरे लिए सईद अब गुजश्ता-बहार का एक भूला हुआ नगमा था। हृदय की पीड़ा ठंडी हो गयी। शमा-ए-मुहब्बत बुझ गई। यही नहीं, उसकी इज्जत भी मेरे दिल से रुखसत हो गई। जो शख्स मुहब्बत के पाक-मंदिर में वैमनस्य से पूर्ण हो, वह हरगिज़ इस क़ाबिल नहीं कि उसके लिए घुलूँ और मरूँ।

एक रोज़ शाम के वक्त मैं अपने कमरे में पलंग पर पड़ी एक किस्सा पढ़ रही थी। अचानक एक हसीन औरत मेरे कमरे में दाखिल हुई। ऐसा मालूम हुआ कि गोया कमरा जगमगा उठा। नूर-ए-हुस्न ने दरोदीवार को रौशन कर दिया, गोया अभी सफ़ेदी हुई है। उसकी जड़ाऊ सुंदरता, उसकी मनमोहक प्रफुल्लता, उसकी लावण्य, साँवलापन किसकी तारीफ़ करूँ? मुझ पर एक रोब-सा हो गया। मेरा गरूर-ए-हुस्न खाक में मिल गया। मैं चकित थी कि यह कौन नाज़नीन है और यहाँ क्योंकर आई? बेअख्तियार उठी कि उससे परिचय करूँ कि सईद भी मुस्कराता हुआ कमरे में आया। मैं समझ गई कि यह नाज़नीन उसकी माशूका है। मेरा गरूर जाग उठा। मैं उठी ज़रूर पर शान से, गर्दन उठाए हुए। आँखों में रौब-ए-हुस्न की जगह हिक़ारत आ बैठी। मेरी निगाह में अब वह नाज़नीन हुस्न की देवी नहीं, डसने वाली नागिन थी। मैं फिर चारपाई पर बैठ गई और किताब खोलकर सामने रख ली। वह नाज़नीन एक लम्हे तक खड़ी मेरी तस्वीरों का निरीक्षण करती रही। तब कमरे से निकली। चलते वक्त उसने एक बार मेरी तरफ़ देखा, उसकी आँखों से अँगारे निकल रहे थे, जिनकी किरणों से क़ातिलाना-इंतिक़ाम की सुर्खी झलक रही थी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ, सईद इसे यहाँ क्यूँ लाया? क्या मेरा गरूर तोड़ने के लिए?

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